बांसवाड़ा के आदिवासी बहुल इलाके में औषधीय पौधों की भरमार है
इनसे कई बीमारियों का इलाज संभव, इसलिए इन्हें सहेजने की जरूरत है
बांसवाड़ा। दक्षिण राजस्थान का बांसवाड़ा आदिवासी बहुल इलाका है। इनकी संस्कृति और परंपराएं आज भी काफी अलग हैं। इनका प्रकृति प्रेम जगजाहिर है। इसी कड़ी में आज आपको बताते हैं कि वागड़ अंचल में कई ऐसे पेड़-पौधें हैं जो औषधीय महत्व रखते हैं। आदिवासी इलाकों के लोग बताते हैं कि ये इनके पुरखों का दिया हुआ है। इनसे कई रोगों का उपचार हो जाता है। बीमार पड़ने की दशा में ये आज भी किसी डॉक्टर के पास नहीं जाते बल्कि इन्हीं जड़ी-बूटियों के जरिए अपना इलाज करते हैं। इन औषधीय पौधों को जरूरत है तो सहेजने की। इन पर और शोध कार्य होना चाहिए। इसके लिए सरकार को आगे आने होगा।
125 औषधीय पौधों की पहचान की गई
आपको बता दें कि बांसवाड़ा जिला मुख्यालय पर श्री गोविन्द गुरु राजकीय महाविद्यालय में बॉटनी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर नीरज कुमार श्रीमाली ने औषधीय पौधों पर शोध किया है। पीएचडी शोध में इनके महत्व के बारे में स्पष्ट किया है। मूलतः डूंगरपुर जिले के दीवडा बड़ा गांव निवासी श्रीमाली ने वागड़ की लोक वानस्पतिक औषधियों का अध्ययन, रासायनिक विश्लेषण हेतु डूंगरपुर जिले के कुल 125 औषधीय महत्व के पादपों की पहचान की। इसके साथ ही उनके औषधीय गुणों सहित उनके फॉर्मूलेशन बनाने तथा प्रयोग की विधि का विस्तार से उल्लेख किया है।
नई पीढ़ी इन औषधीय पौधों में नहीं दिखा रही रुचि
आपकों बता दें कि वागड़ क्षेत्र में औषधीय महत्व के कई ऐसे पेड़ पौधें हैं जिनसे हम अब तक अनजान हैं। हालांकि जनजातीय संस्कृति में आज भी इन पारंपरिक औषधीय पेड़-पौधों का नियमित उपयोग होता आ रहा है। इन औषधीय पौधों की यह जानकारी जनजाति समुदाय को उन्हें अपनी विरासत में मिली है। अफसोस यह है कि नई पीढ़ी अब इसमें रुचि नहीं रखती है जिसके कारण यह पारंपरिक विधा धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। इस शोध के द्वारा स्थानीय भील एवं डामोर जनजातिय संस्कृति की इस पारंपरिक विरासत को सहेजने का प्रयास किया है।
यह शोध आयुर्वेद विभाग के लिए उपयोगी सिद्ध होगा
श्रीमाली का यह शोध ग्रंथ वनस्पति विज्ञान के शोधार्थियों सहित आयुर्वेद विभाग एवं वन विभाग के लिए भी काफी उपयोगी सिद्ध होगा। वागड़ की समृद्ध औषध परंपरा के कुछ पेड़-पौधें जिनमें इतनी ताकत है कि कई रोगों का इससे इलाज संभव है। इनमें- बहुफली, कांटारियो (वज्रदंती), नवली (चिरायता), मीठी डोडी (कृष्ण सारीवा), कड़वी डोडी (हरण डोडी) खाटी लिंबो (जंगली अंगूर) सतरपोड़ (विधारा), दाडा़तारा (अपामार्ग), टाटम (पारिजात) ,पाणी वेलो (पानी बेल), कुटी (कोठी), सरमाई (चिरमी) फांग विलो (फांगवेल), गरुंद (गिलोय), हिमरो (सेमल), हरुगो(सहजन)आदि हैं। हालांकि इनमें से कई विलुप्त होने के कगार पर हैं। इसे सहेजने की आवश्यकता है।
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