मेरे दादाजी ने बांसवाड़ा के घंटाघर निर्माण का ठेका लिया था

50 फीट ऊंचाई के इस भवन की कीमत मात्र बीस हजार रुपए है

मेरे दादाजी ने बांसवाड़ा के घंटाघर निर्माण का ठेका लिया था

महेश्वर शर्मा : मैं जब सात साल का था। मेरे दादाजी ने बांसवाड़ा के घंटाघर (क्लॉक टावर) निर्माण का ठेका लिया था। दादा जी व पिताजी के साथ मैं भी निर्माण कार्य देखने जाता था। 50 फीट ऊंचाई के इस भवन की कीमत मात्र बीस हजार रुपए है। आज लाखों रुपए में भी यह भवन इस स्तर का नहीं बन सकता। बचपन से पढ़ने में होशियार था और दादा जी के साथ रहने से मुझे पेंटिंग का शौक हो गया था।

मैंने ड्राइंग विषय लेकर रूचि के अनुसार अध्ययन प्रारंभ किया। सार्वजनिक निर्माण विभाग में पांच वर्ष तक इंस्पेक्टर की नौकरी की। फिर सिंचाई विभाग में मिस्त्री के पद पर सेवाएं दी। इसके बाद राहत में कनिष्ठ अभियंता पद पर नियुक्ति हुई।

नौकरी में उत्साह और उमंग से खूब इमानदारी से काम किया। उन दिनों लोगों में सरकारी कर्मचारी के प्रति सम्मान होता था। लोग अच्छी आवभगत करते थे। नौकरियां बहुत थी लेकिन पढ़े-लिखे लड़के नहीं मिलते थे। मैंने तीन बार नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। तीनों बार मुझे अधिकारियों ने वापस बुलाकर नौकरी पर जबरन लगाया। आज नौकरियों के लिए लाखों लड़के तरस रहे हैं।

उन दिनों सोने का भाव 100 रूपये प्रति तोला वह चांदी 25 रुपये तोला थी। उस जमाने में चीजें बहुत सस्ती मिलती थी। हां, आज की तरह इलेक्ट्रॉनिक साधन उस समय नहीं थे। सीमित संसाधनों के बावजूद लोग स्वच्छता से सारे काम करते थे। लोगों में साहस और संतोष दोनों थे।

सुबह जल्दी उठना, हाथ से अनाज पीसना, बावड़ी से पानी लाना और कड़ी मेहनत करना दिनचर्या में शुमार था। मेरे दादाजी ने घंटाघर का निर्माण किया तो उसमें उन्हें नुकसान भी सहन करना पड़ा। दरबार पृथ्वीसिंह मुंबई इलाज के लिए गए वहीं पर उनका देहावसान हो गया।ऐसी स्थिति में शोकाकुल परिवार से उन्होंने नुकसान की बात नहीं की।

तालाब परिसर में बने बजरंगबली, महादेव व अंबा माता मंदिर का निर्माण भी दादाजी ने करवाया। मेरे बचपन की एक घटना मुझे याद आ रही है। दादाजी उन दिनों घंटाघर निर्माण में लगे हुए थे। मैं उस समय 10 साल का था। राजमहल में चुपके से घुस गया, उन्हें पता ही नहीं चला। मैं उछल कूद करते हुए महल के भीतरी भाग में पहुंच गया। दरबार साहब विश्राम कर रहे थे।

महाराजा पृथ्वी सिंह के चेहरे का ओज देख कर मैं डर सा गया। उन्होंने मुझे प्यार से बुलाया और पूछा किसके लड़के हो। मैंने सहम कर अपने पिताजी का नाम बता दिया। वे उठे और मेरा हाथ पकड़ कर दादाजी के पास लाए।

दादाजी घबरा गए की महाराज साहब अब क्या कहेंगे? पर उन्होंने शांत भाव से पूछा यह बालक तुम्हारा पोता है? दादाजी ने सहमे हुए कहा इसने कुछ नुकसान कर दिया। दरबार साहब ने कहा नहीं बालक है चंचलतावश महल में आ गया था।

ऐसे उदारमना दरबार के साथ बात करने का सौभाग्य मुझे कई बार मिला। मुझे सेवा अवधि में ग्रामीण जीवन की झलक भी देखने को मिली। अभावों के बावजूद लोग अपनी मस्ती में रहते थे। चारों ओर घने जंगल और शुद्ध वातावरण गांव की पहचान थी। आज न तो जंगल रहे और ना ही शुद्ध वातावरण। वे दिन आज भी याद आते हैं। - विनोद पानेरी की पुस्तक- बातें बुजुर्गों की में से साभार

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