वागड़ में शादी की रस्म अनोखी थी, चार ही फेरे होते, दुल्हा रूठकर चला जाता!

वागड़ में शादी की रस्म अनोखी थी, चार ही फेरे होते, दुल्हा रूठकर चला जाता!

कलावती: जब मेरी शादी हुई तब मैं पूरे 14 वर्ष की भी नहीं हुई थी। उस जमाने में हमारे समाज में कुछ संपन्न परिवारों की लड़किया ही स्कूल जाती थी। आठ-दस वर्ष की आयु में ही परिवार में मां की जिम्मेदारियों में हाथ बंटाना पड़ता था।

उपले (छाणे)) घर पर ही थापे जाते थे। उसके लिए बेटियों को सड़क पर और गाड़ियों के अड्डों पर गोबर संग्रह के लिए भेजने में कोई सामाजिक लज्जा महसूस नहीं की जाती थी। घर में लिपाई सफाई के लिए मिट्टी खोदकर जंगल में मां के साथ जाना तो आम बात थी।

सिर पर पानी का भरा बेड़ा लेकर धनावाव की सीढ़ियां चढ़ना आज की लड़कियों के लिए तो सिर्फ कल्पना करने की बात है। हालांकि मैं भी स्कूल जाती थी लेकिन मुझे भी धनावाव की सीढ़ियां उतरनी व चढ़ने पढ़ती थी। मेरी शादी 1946 में हुई थी। तब हमारे समाज में शादी का रिवाज मनोरंजक भी था और वैज्ञानिक भी।

शादी के लगभग महीना भर पहले लग्न बता दिए जाते थे और तब दूल्हे- दुल्हनों की टोलियां घूमने जाती थी। उस समय एक शादी अकेली नहीं होती थी एक ही तारीख में बहुत सारे विवाह का प्रचलन था। मेरी शादी के दिन कुल 11 शादियां थी, अतः अच्छी टोली बन जाती।

मित्र और सहेलियां तो साथ ही रहते। उस समय वर पक्ष की ओर से कन्या पक्ष के पीहर में पान और पान लगाने का मसाला भिजवा दिया जाता था। और रस्म के अनुसार दुल्हन प्रतिदिन कुछ पान लगाकर अपने भावी पति के लिए भेजा करती।

वैसे ही दुल्हन के लिए फूलों के गजरे और टार वगैरह प्रतिदिन वर पक्ष की ओर से भिजवाए जाते। यद्यपि दूल्हा-दुल्हनों की टोलियों अलग-अलग घूमने निकलती लेकिन दूतों के मार्फत एक दूसरे का कार्यक्रम जान लेते और मार्ग में आपस में मिल ही जाते। शादी के समय कन्या को सफेद साड़ी पहनाई जाती थी। उसकी पवित्रता के प्रतीक रूप में पहले दिन चार फेरी का कार्यक्रम होता और दुल्हन को अपनी शादी के बारे में सोचने का एक और अवसर देने के निमित्त से शादी का कार्यक्रम दूसरे दिन के लिए टाल दिया जाता था। दुल्हा रूठकर (ऐसा रिवाज था) अपने घर न जाकर वन में चला जाता। यह वन तब नगर पालिका परिसर में होता था। सभी दूल्हे एक-एक कर वहां जाते, शेष रात और दूसरे दिन यार दोस्तों के साथ खूब धमाचौकड़ी मचती।

जमाई के लिए खाना ससुराल से भेजा जाता। चार पांच व्यक्तियों के लिए पर्याप्त स्वादिष्ट भोजन भेजते। शाम को जाति पंच वहां जमा होते। भंग- शरबत पिये जाते। पतासे बांटते और तब सभी पंच दल्हों को लेकर गाजे बाजे के साथ उनके ससुराल में छोड़ने जाते।

वहां शादी के शेष तीन फेरों और कन्यादान का कार्यक्रम पूरा होता। वर पक्ष की महिलाएं दुल्हन को "लई सालो लासक लाडी" गाते अपने घर लाती। वहां कुल देवता की पूजा होती। पांच घरों में दूल्हा दुल्हन के कंकु के हत्थे लगवाए जाते और तब तक दुल्हन का भाई अपनी बहन को लेने आ जाता।

दुल्हन वापस पीहर चली जाती। अब दूल्हा रोज शाम को ससुराल में सोने जाया करता। अर्थात उसका अपने पति से परिचय क्रमशः अपने मां-बाप के साए में ही होता। यह क्रम तब तक चलता जब तक पालकी आणा नहीं हो जाता। पालकी आणे के दिन कन्या पक्ष दहेज के नाम पर एक पलंग बिस्तर और कुछ बर्तन वगैरह देता। वर पक्ष के प्रमुख लोगों को कपड़े भी पहनाना (पेरमणी करना) और पालकी में बिठाकर दूल्हे दुल्हन को विदा किया जाता।

अभी भी दुल्हन ससुराल की नहीं हुई थी। वधू प्रतिदिन शाम को ससुराल में सोने आती और प्रातः उठकर पीहर चली जाती। क्रमशः महीने दो महीने बाद पानी छानने, अपने सोने के कमरे में झाड़ू लगाने जैसे हल्के-फुल्के काम भी करती. और यह क्रम दिवाली आगे तक चलता।

दिवाली आगे के बाद वधू स्थाई तौर पर ससुराल के परिवार की सदस्य बन जाती। मेरी शादी के समय मेरे पति भारतीय सेना में थे। महीने भर की छुट्टी पर आए थे अचानक उन्हें वापस जाना पड़ा और लगभग 2 साल तक में ससुराल और पीहर के बीच झोंके खाती रहीं। 1948 में पति ने सेना की नौकरी छोड़ दी और घर आ गए। उन्हें बांसवाड़ा में नौकरी करना रास नहीं आया और मैं भी उनके साथ इंदौर गई और तब से हमारी स्वतंत्र गृहस्थी शुरू हुई।

मेरे पति की नौकरी केंद्र सरकार की होने के कारण उन्हें एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरण पर जाना पड़ता। वे जहां जाते वहां मैं भी उनके साथ जाती और इस प्रकार मुझे राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु तक घूमने का अवसर मिला।

वहां के रीति रिवाज और संस्कृति को समझने तथा प्रमुख तीर्थों के दर्शन का भी लाभ मिला। आज मेरी आयु 77 वर्ष की है आज भी मैं पावर चक्की चलाती हूं। अपनी दवा एवं वस्त्रों का व्यय स्वयं अर्जित कर लेती हूं। प्रभु कृपा से जीवन सुखमय चल रहा है। चारों बच्चे भी अपनी-अपनी गृहस्थियों के साथ मजे में हैं और चौथी पीढ़ी के बच्चों को घर में कूदते फांदते देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है। - विनोद पानेरी की पुस्तक- बातें बुजुर्गों की में से साभार

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