अल्लाह की मेहरबानी से इक्कीस तो क्या मेरे अठाइस संतान हुई
हाजी ताज मोहम्मद: तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था कि एक बार माडसाहब ने किसी अज्ञात कारण से जोरदार पिटाई की। उसी दिन से पढ़ना छोड़ दिया। घरवालों ने कहा पढ़ लिख कर क्या करना है। मैं अकेला वारिस था। इसलिए सभी मुझसे प्यार मोहब्बत करते थे।
मेरी दादी हमेशा दुआएं देती कि एक से इक्कीस होंगे। अल्लाह की मेहरबानी से इक्कीस तो क्या मेरे अठाइस संतान हुई। पूरा मकरानी वाडा मेरा परिवार है। पांचवी छठी पीढ़ी तक के बालकों को देखकर मन बहुत खुश हो जाता है। घर पोते-पोतियो से भर गए हैं।
मैंने दरबार पृथ्वी सिंह के यहां नौकरी की। वहां पर निगरानी का काम मेरे जिम्मे था। भुजापालिया से त्रिपोलिया तक पहरा मैं देता। जब नमाज का वक्त होता बंदूक ऑडी रखकर वही नमाज पढ़ लेता। कई बार दरबार भी चेक करने आए पर हमेशा ड्यूटी पर तैनात मिलता। नमाज पढ़ते देख कर उन्होंने मेरी हौसला अफजाई की। शुरू-शुरू में छह रुपये दो आने तनख्वाह मिलती थी। एक-एक पैसा बच्चों को देता और एक माह तक गुजारा चला था।
उस समय सावन का मेला डायलाब तालाब पर लगता था। एक माह तक झूले और दुकानें लगी रहती। दरबार की सवारी भी आती। दशहरे के दिन दरबार पाड़े (भैंसा) दौड़ाते। जो लोग पाड़े को पकड़ते दरबार उन्हें शाबाशी देते। देव झुलनी ग्यारस का मेला राजतालाब पर भरता था। उस समय शुद्ध घी रुपए का दो किलो मिलता था। एक पैसे में सुबह-शाम की सब्जी आ जाती।
1978 में हज यात्रा की। मक्का, मदीना, नूरजहां जहाज से पहुंचे। जाते वक्त 8 दिन आते वक्त हवा चलती तो 1 दिन ज्यादा लगता। 4 महीने में हज पूरी आज 15 दिन में हज पूरी हो जाती है। कागदी में 19 बीघा जमीन थी। डेम गया तो सारी जमीन उसमें चली गई। उस समय राजा की न्याय प्रणाली से खुश थे। दोषी को कड़ी सजा सुनाते थे। आज नगर स्कूल है वहां अस्पताल था। एक बार महल में काम करने वाला सिलावट गिर गया तो उसे आकर यहां लाए और भर्ती कराया।
आजादी के दीवाने जुलूस निकाला करते। उस समय अंग्रेजों के निर्देश पर हंगामे भी हुआ करते थे। कई बार लोगों को कुचल दिया गया। आजादी के बाद पुलिस विभाग में नौकरी कर ली। उस लोगों के मन में ईमान और अल्लाह के प्रति डर था। आज न तो ईमान और ना ही नेक चलनी! शुरू से अध्यात्म के प्रति लगाव रहा। इसके चलते कई सालों तक अजुमन इस्लामिया का सदर रहा। इसके बाद मेरा पोता दोस्त मोहम्मद और मेरा पुत्र दोस्त मोहम्मद दोनों सदर हैं।
बच्चों की शादियां करवाई और इमानदारी से जीवन बिताया। अब सफलता फूलता देख कर मन में बहुत खुशी होती है। हां, एक जोरदार घटना मुझे याद आ रही है। एक बार राशन कार्ड बनाने वाला बाबू घर आया। अपने सदस्यों की संख्या पूछी। मैंने चालीस बताई। अब उसने एक-एक कर नाम पूछे। सबके नाम मुझे याद नहीं थे।
याद भी कैसे रहते घर पर किसी का नाम और था बाहर कुछ और था। अब वह तो नट गया। उसने कहा फर्जी नाम लिखवाते हो। मुझे गुस्सा आया। मैंने कहा सब की लाइन लगवाऊं क्या। जब उसे वास्तविकता का पता चला तो वह भी हंसे बिना नहीं रहा। उसके बाद अगली बार उसने बिना पूछे कार्ड बना दिया। है। - विनोद पानेरी की पुस्तक- बातें बुजुर्गों की में से साभार
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