लघु काशी बांसवाड़ा से कराची तक पहुंचता था कपास
आज कपास की पैदावार शून्यप्रायः हो गई है
जमनालाल जोशी: बांसवाड़ा में हर छोटे से गांव से लेकर बड़े शहर तक कपास के उजास में लोगों में जो क्षमता थी वह उन दिनों पंक्ति स्वर्णिम युग से कम नहीं थी। 90 बसंत देखे हैं इन आंखों ने। मैं तब जवान था। उन दिनों रुपयों की खनक कपास से सुनने को मिलती थी।
छोटे से गांव के लघु खेत में अंकुरित रजत फसल जब कराची तक की यात्रा करती थी तो उसके सामीप्य में आने वाला हर शख्स लाभान्वित हुआ करता था। वागड़ी में "अमारे जमाना में धोरा धान नी मेरबानी थकी लोग न घोर फरत त।" मुझे अच्छी तरह याद है जब पहली बार इस क्षेत्र में कपास की फसल बोई गई तो कई किसानों ने प्रयोगात्मक तौर पर इसे नहीं अपनाया।
फसल के पकने पर जब धन की वर्षा होने लगी तो अगले साल से हर किसान कपास बोने लगा। मुंबई की भवानजी लक्ष्मीलाल कॉटन मिल में 45 वर्ष तक रजत फसल के ढेरों को देखने और इनके प्रबंधन का वह युग मेरे जीवनकाल का स्वर्णिम पृष्ठ रहा है।
उन दिनों दूरस्थ अंचलों में से किसान अपनी बैलगाड़ी में कपास भरकर रवाना होता और दो-तीन दिन की यात्रा के बाद फैक्ट्री तक पहुंचता था। अपने पसीने की कमाई को इन ढेरों के हवाले कर नकद राशि लेकर किसान लौटता तो अपनी पत्नी के लिए पायजेब, बेटी के लिए ओढ़नी, वृद्ध पिता के लिए टोपी और माता के लिए चप्पल साथ ले जाना नहीं भूलता था। लौटने की खुशी में घर में उत्सवी माहौल बन जाया करता था। उन दिनों वागड़ से लेकर सुमेरपुर और कराची तक खेतों में कपास की श्रंखला दिखाई देती थी।
कपास की बहुतायत से पैदावार होने पर हर बड़े गांव में जिनिग फैक्ट्री लगाई गई। इन फैक्ट्री में कपास पिंजने और रुई के बंडल तैयार करने का का युद्ध स्तर पर होता था। कपास से लदी बैलगाड़ियों का समूह जब शहर ओर रवाना होता था तो एकता अपनत्व और भाईचारे की मिसाल नजर आती थी। जाति-पांति, धर्म-संप्रदाय, ऊंच-नीच से परे सभी कृषक दो-तीन दिन में यात्रा सौहार्दपूर्ण वातावरण में पूरी करते थे।
आज जब वह दृश्य कभी याद आता है तो मन में उस स्वर्णिम काल आज के भौतिकता की ओर पलायन कर रहे मानव के बीच कई तरह विभिन्नताएं पाई जाती हैं। उन दिनों आपसी तालमेल और सामंजस्य से प्रकार के कार्य में अपनत्व हुआ करता था। पैसों की कमी जरूर चलती थी। पर महंगाई कम थी। आज पैसा बहुत है लेकिन महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी है। बांसवाड़ा के दाहोद मार्ग पर बनी तत्कालीन जैसी मिल 80 से 90 दशक में पूरे यौवन पर थी। यहां जिले भर से टनों बन्द कपास आया करता. आज कपास की पैदावार शून्यप्रायः हो गई है।
80 के दशक मैने मिल में जो चहल-पहल देखी है उसका कोई सानी नहीं है। आज मिल खण्डहर में तब्दील होकर अपने मूल स्वरूप को खो चुकी है। इसका यौवन देखने वाला हर शख्स जब उस क्षेत्र से गुजरता है तो क्षण भर से लिए आह निकल जाती है। - विनोद पानेरी की पुस्तक- बातें बुजुर्गों की में से साभार
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