बांसवाड़ा में तब दोषियों को सरेआम लगाते थे कोड़े

उन दिनों आज की तरह पुलिस को तफ्तीश के लिए भटकना नहीं पड़ता था

बांसवाड़ा में तब दोषियों को सरेआम लगाते थे कोड़े

किशोर सिंह सिसोदिया : आदर और संस्कार समाज के गहने हुआ करते थे। बड़े बुजुर्गों का सम्मान और सेवा के भाव बालकों को बचपन से ही सिखाए जाते थे। आज की युवा पीढ़ी की तड़क-भड़क देखकर लगता है आदर्श और संस्कार बीते दिनों की बात रह गए हैं।

जीवन में 104 बसंत देख चुके ठाकुर किशोर सिंह सिसोदिया थानेदार के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 40 वर्ष पूर्व राजकीय सेवा से मुक्त होने वाले सिसोदिया का कहना है कि उन दिनों आज की तरह पुलिस को तफ्तीश के लिए भटकना नहीं पड़ता था।

हर गांव में मुखिया नियुक्त किया जाता था वही गांव की घटनाओं पर नजर रखता था। एक सिपाही होता था जो हर रविवार को सप्ताहिक सूचना देता था। जनता भी चोर को पकड़वाने में सक्रिय भूमिका निभाती थी। जीवन के कई अनुभवों को याद करते हुए वे कहते हैं कि संयुक्त परिवार प्रथा उन दिनों समाज का कहना हुआ करती थी।

5-5 पीढ़ी तक लोग संयुक्त परिवार में रहते थे। बड़ों की आज्ञा के उल्लंघन का साहस उस समय की युवा पीढ़ी में नहीं था। उन दिनों संयुक्त परिवार होते थे तो मकान भी बड़े बड़े होते थे। आज चार परिवार अलग-अलग रहते हैं उतना मवेशियों का चाराग्रह होता था घर की व तिजोरी की चाबी उन दिनों घर के मुखिया के पास रहा करती थी।

दरबार पृथ्वीसिंह के जमाने की न्याय प्रणाली के बारे में वे बताते हैं कि उन दिनों यदि कोई अपराध करता था तो उसे अपराध के अनुसार सजा भुगतनी ही पडती थी। दोषियों को सरेआम कोड़े लगाए जाते थे इससे डरकर अपराधियों की संख्या में कमी रहती थी।

उन्होंने  कहा कि साम-दाम, दंड और भेद के अनुसार राजा को इन चार बातों पालक होना चाहिए तभी वह सफल हो सकता है। आज न्याय प्रणाली भी इतनी लोचदार हो गई है कि वास्तविक अपराधी को चाहकर भी सजा नहीं दे पाते हैं।

पौराणिक काल की एक घटना के बारे में उन्होंने बताया कि महाभारत के युद्ध के बाद एक बार भगवान कृष्ण के एक भक्त ने श्रीमद् भागवत सुनाने की अनुनय ने की तो उन्होंने कहा कि महाभारत का युद्ध हुए बरसों बीत गए और अब मैं वह वृतांत हूबहू कैसे सुना सकता हूं। उस समय की परिस्थिति के अनुरूप जो विचार मेरे मन में आए वह मैंने अर्जुन को सुना दिए। अब या तो ऐसी परिस्थिति पैदा करो या जो सुन रखा है उसे अपनाओ।

भक्त कृष्ण के जवाब से निरुत्तर हो गया था। वैसे ही आज की न्याय प्रणाली में घटना के कई सालों बाद गवाहों को तलब किया जाता है ऐसे में व वास्तविकता कैसे बयां कर सकता है। गुरु के प्रति सम्मान तो अब देखने ही नहीं मिलता। पहले गुरु को देखते ही शिष्य अभिवादन के लिए 10 फीट दूर से खड़ा हो जाता था और यदि वह घोड़े, बग्घी या तांगे में होता था तो नीचे उतर कर दंडवत प्रणाम करता था।

जीवन पर्यंत अनुशासन और संयम के प्रहरी रहे सिसोदिया की इतनी उम्र होने के बावजूद ना तो चश्मे की जरूरत है और ना ही रोटी चबाने के लिए नकली दातों की। अपने सारे नित्य कार्य स्वयं निपटाते हैं। खेतों में भ्रमण हो या मेहमान नवाजी करनी हो वे लाठी के मोहताज नहीं है।

आसपुर, प्रतापगढ़ कोतवाली बांसवाड़ा, निठाउवा गामडी व दानपुर थाने में राजकीय सेवा निष्ठापूर्वक करने पर पुलिस अधीक्षक की अनुशंसा पर 4 साल सेवा बढ़ा दी गई। आज दूरदर्शन संस्कृति से युवा पीढ़ी में आने वाली विकृतियों पर चिंता जताते हुए वे कहते हैं कि संयम और अनुशासन देश के हर व्यक्ति में भरना होगा तभी देश पुनः जगद्गुरु के पद पर आसीन हो सकेगा। - विनोद पानेरी की पुस्तक- बातें बुजुर्गों की में से साभार

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